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मानव जीवन के कुछ विधान ... विचारणीय

 

1.

खुद पीछे रहना और दूसरों को आगे कर नेतृत्व करना बेहतर होता है, खासतौर पर तब, जब आप कुछ अच्छा होने पर जीत का जश्न मना रहे हों। इसके विपरीत आप उस समय आगे आकर नेतृत्व संभालिये, जब खतरे की शंका हो। तब लोग आपके नेतृत्व की प्रशंसा करते हुए उसको स्वीकार करेंगे। कुशल नेतृत्व की विशेषता यही है कि जब वह सब लोग, जो आपके नेतृत्व को स्वीकारते हुए आपके पीछे चल रहे हैं, स्वयं को सुरक्षित महसूस करें और अपने लक्ष्य की प्राप्ति व शत्रु पर विजय के प्रति आश्वस्त हो। उनको आप की क्षमता, ईमानदारी और कुशल नेतृत्व पर अटूट विश्वास एवं पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए। यह विश्वास ऐसे ही प्राप्त नही हो पाता। इसके लिए निरंतर कठोर प्रयास एवं परिश्रम करना होता है। नेतृत्व करना तभी सम्भव है, जब आपके हृदय में दूसरों के प्रति अगाध व निःस्वार्थ स्नेह, सम्मान, संवेदनशीलता एवं ईमानदारी हो, एवं आप का खुद अपनी सामर्थ्य पर सकारात्मक दृष्टिकोण सहित पूरा भरोसा हो।

   
2.

जब तक आप न चाहें, तब तक आपको कोई भी ईर्ष्यालु, प्रतिशोधी या लालची नहीं बना सकता है। दूसरों से ईर्ष्या करना, प्रतिशोध की भावना रखना तथा लालच करना, ये ऐसे गुण हैं, जो सिर्फ उसको ही प्राप्त होते हैं जो स्वयं ही अपने मस्तिष्क एवं हृदय से अत्यन्त दुर्बल होता है, एवं नकारात्मकता का उच्चतम तथा निरंतर संचार करता है। ऐसे लोग न कभी किसी दूसरे का भला कर पाते हैं, और न ही होते देख सकते हैं। यदि स्वयं हमारी सोच सकारात्मक है, एवं हमारा अंतर्मन शक्तिशाली है, तो किसी भी तरह का नकारात्मक भाव कोई भी बाहर से हम पर थोपनही सकता। अतः स्वयं को सशक्त एवं दृढ़ रूप से सकारात्मक रखिये। अपने मन के भीतर किसी भी तरह का कोई भी नकारात्मक भाव मत आने दीजिये। इसी में आपका तथा आपके परिवार का कल्याण है।

   
3.

मनुष्य की इच्छाओं का पेट आज तक कोई भी नहीं भर सका है। हमारी मूलभूत आवश्यकताएं सदैव ही सीमित रही हैं। जीवन को सामान्य एवं संतुलित ढंग से जीने के लिए प्रायः अति सीमित मूलभूत साधनो की आवश्यकता होती है, जो सामान्य कौशल एवं परिश्रम से ही लगभग सभी को उपलब्ध हो जाते हैं। किन्तु जब भी मूलभूत आवश्यकताओं पर हमारी अनावश्यक इच्छाएं हावी होने लगती हैं, उपलब्ध संसाधन भी तुच्छ एवं कम पड़ने लगते हैं। हमारी इच्छाओं के हमारी सोच पर हावी होते ही एक कभी न समाप्त होने वाली भूख हमारे मस्तिष्क एवं हृदय पर अपना वर्चस्व कायम करते हुए हमारी संतुष्टि की प्रवृत्ति को नष्ट कर देती है, और ये हवस ही निरंतर हमारे मन को विचलित तथा विकृत करती रहती है। जब हमारी इच्छाओं की पूर्ति नही हो पाती, जो किसी के लिए भी असंभव है, तो यह मनोवृत्ति हमारे व्यक्तित्व में नकारात्मकता को उत्पन्न करते हुए एक मनोविकार का स्वरूप ले लेती है।

   
4.

क्रोध को जीतने में मौन सबसे बड़ा सहायक है। क्रोध नकारात्मक आवेश का हिंसक स्वरूप है। क्रोध करते समय क्रोध करने वाले को कभी भी इतना समय नही मिल पाता है कि वह अपने क्रोध के आधार व उसके मूल कारणों का तार्किक विश्लेषण कर सके और क्रोध के आवेग में प्रयोग किये जाने वाले शब्दों का मूल्यांकन कर सके एवं उनके होने वाले नकारात्मक एवं हानिकारक प्रभाव के विषय में कोई भी पूर्वानुमान लगा सके। अतः बेहतर यही होगा कि इस अवस्था मे हम मौन रहे। मौन ही सकारात्मकता को प्राणवायु देगा, क्रोध पर पूर्ण नियंत्रण करेगा एवं अनचाहे तर्क- कुतर्क से सुरक्षित रक्खेगा।

   
5.

बिना कड़ी मेहनत के सफलता नहीं मिल सकती। जिस प्रकार कुदरत चिड़ियों को भोजन तो अवश्य देती है, पर उनके घोसले में नहीं डालती। उन को घोंसला बनाने के लिए तिनके भी अवश्य देती है, किन्तु एक एक तिनका बीन कर चिड़िया को खुद लाकर घोंसला बनाना पड़ता है। उसी प्रकार, हमारे लक्ष्य जितने ही उत्तम, उच्च व प्रभावी होंगे, हमें उनको हासिल करने हेतु श्रम भी उतना ही अधिक तथा उच्च व प्रभावी श्रेणी का करना होगा। स्वयं के कड़े परिश्रम पर पूर्णतया भरोसा रखते अपने आत्मविश्वास व दृढ़ निश्चय को बनाये रखिए। आपको अभूतपूर्व सफलता अवश्य प्राप्त होगी।

   
6.

ऐसे स्थान को तुरंत ही छोड़ देना चाहिए, जहाँ धन तो है, लेकिन सम्मान नहीं। सार्थक एवं सर्वस्वीकृत यही है कि यदि सम्मान व आदर के साथ रूखा सूखा भोजन भी मिले तो वह अमृत से भी अधिक पवित्र एवं पावन है। इसके विपरीत यदि अनादर के साथ छप्पन भोग भी मिले, तो वह शरीर पर विष से भी अधिक घातक दुष्प्रभाव करता है। अतः अपनी मान, मर्यादा, व सम्मान की रक्षा के लिए सजग रहते हुए उसकी संरक्षा के लिए निरंतर प्रयास करते रहना होगा। ऐसे धन, व्यवसाय व संपत्ति का परित्याग करना उत्तम है, जिसमे स्वयं के सम्मान की हानि हो।

   
7.

प्रकृति ने हमारे लिए वही विधान किया, जो हमारे लिए उचित था। उसने आज तक जो कुछ किया वह हमारे मंगल एवं कल्याण के लिए ही किया है। वास्तव में ना तो हमारा इस जीवन पर ही कोई नियंत्रण है, और न ही अपनी निश्चित मृत्यु पर। कोई कब, कहाँ, कैसे और किन परिस्थितियों तथा विषमताओं में उत्पन्न होगा तथा समाप्त होकर नष्ट हो जाएगा, इसका नियंत्रण प्रकृति ने अपने पास ही रक्खा है। शरीर के आकार, प्रकार एवं रंग पर भी हमारा तनिक नियंत्रण नही है। हमको जो भी मिला है, वह हर तरह से सर्वोत्तम है, इस सत्य को स्वीकारते हुए ही हमे अपने कर्तव्यों का पालन एवं जिम्मेदारियों का पूर्ण निर्वाहन करना है।

   
8.

असत्य एवं बुराई का कद कितना भी ऊँचा क्यों ना हो, सत्य एवं अच्छाई से हमेशा छोटा ही होता है। अपनी तात्कालिक सफलता अथवा लाभ के लिए कभी भी सत्य के उत्तम एवं सकारात्मक ऊर्जा के स्रोत के मार्ग का त्याग ना करें, क्योंकि अंत में विजय हमेशा सत्य की ही होती है। अच्छाई हमेशा दिल को सुकून देती है और दिमाग पर बोझ नही पड़ने देती। यदि आप सत्य के पक्ष में खड़े हैं तो विश्वास कीजिये, आप के मन एवं मस्तिष्क की शक्ति के विरुद्ध संसार की सभी शक्तियां कमज़ोर होंगी और विपक्ष बौना दिखाई देगा। सत्य के मार्ग पर चलने वाला अन्तहीन विपक्षियों के कारण परेशान तो अवश्य हो सकता है, किन्तु पराजित कभी नही हो सकता।

   
9.

जब दिमाग कमजोर होता है, परिस्थितियां समस्या बन जाती हैं। जब दिमाग स्थिर होता है, परिस्थितियां चुनौती बन जाती हैं। किंतु जब दिमाग मजबूत होता है, परिस्थितियां अवसर बन जाती हैं। स्पष्ट है कि परिस्थितियां वही होती हैं, किन्तु उनकी प्रकृति एवं उनका हमारे ऊपर प्रभाव हमारे मन एवं मस्तिष्क की अवस्था के अनुसार बदलता रहता है। अतः सत्य यही है कि हमारे स्वयं के जीवन की दिशा एवं दशा पूर्ण रूप से हमारी स्वयं की मनःस्थिति पर ही निर्भर करती है। अपने मन एवं मस्तिष्क को सदैव अपने नियंत्रण में रखिये। सकारात्मक रहिये, नकारात्मक आचरण का परित्याग करिए। आपकी परिस्थितियाँ स्वतः ही आपके नियंत्रण में आ जाएंगी। आपका आज का दिन अत्यन्त शुभ, सुखद एवं मंगलकारी हो।

   
10.

खुद वो बदलाव बनिए, जो दुनिया में आप देखना चाहते हैं। किसी भी परिवर्तन को किसी दूसरे में देखने के पहले, उस परिवर्तन को स्वयं अपने व्यक्तित्व में लाइये। किसी दूसरे को कोई शिक्षा देने से पहले उसको स्वयं अपने जीवन पर लागू करें। किसी भी शिक्षा को अपनाने हेतु आप किसी को बाध्य तो नही कर सकते, किन्तु दूसरों को उस शिक्षा को ग्रहण करने हेतु प्रेरित कर सकते हैं, और उसके लिए आपको स्वयं एक उत्कृष्ट व अनुकरणीय मिसाल बनकर सब के लिए प्रेरणास्रोत बनना होगा।

   
11.

जो व्यक्ति ज्ञान और कर्म को एक रूप में देखता है, वही सही मायने में ज्ञानी है। आप ज्ञान व विद्वता का संचय करते रहिये, अपने ज्ञानकोष को निरंतर बढ़ाते रहिये, किन्तु यदि आपके द्वारा उस ज्ञान को कर्म की कसौटी पर नहीं कसा गया, अथवा उसका सदुपयोग व्यक्तित्व, परिवार, समाज एवं राष्ट्र के उत्थान हेतु नही किया गया, तो ज्ञान का क्या लाभ व उपयोगिता। ऐसा ज्ञान पूर्णताः अभिमानी, खोखला एवं दम्भ युक्त किताबी ही रह जाता है। वह ज्ञान, जिसे अर्जित करके सर्वजन हिताय पुण्य सत्कर्म में परिवर्तित किया जा सके, वही सार्थक है, तथा उसका साधक ही सही अर्थ में ज्ञानी व विद्वान कहा जायेगा।

   
12.

अगर बुरा वक्त नहीं आता तो, अपनों में छिपे हुए गैर और गैरों में छिपे हुए अपने कभी नज़र नहीं आते। अच्छा और बुरा वक्त हर किसी के साथ रहता है। लेकिन बुरे वक्त में एक अच्छाई भी है। कष्ट मे हमे प्रायः किसी न किसी की मदद की आवश्यकता पड़ती है, और यही एक अवसर है जो हमे दूसरे लोगों की अपने प्रति निष्ठा की सत्यता से अवगत करा देता है। जो लोग केवल आप के सुख के समय साथ देने वाले होंगे, वह लोग किसी ना किसी बहाने से आपके बुरे वक्त में आपसे दूर ही रहने का प्रयास करेंगे। लेकिन जो आपके सच्चे मित्र होंगे, आप का भला चाहते होंगे, वह आपका साथ कभी नही छोड़ेंगे। वह आप की प्रतिकूल परिस्थितियों, समय तथा कष्ट को देखकर नही, बल्कि आपकी जरूरतों को ध्यान में रख कर आपके कंधे से कंधा मिलाते हुए खड़े होंगे।

   
13.

ऐसा व्यक्ति, जिसने कभी किसी से आशा नहीं की, वह कभी निराश भी नहीं हो सकता है। उसी प्रकार जिसने कभी किसी से कोई अपेक्षा नही रक्खी, वह कभी स्वयं को उपेक्षित भी महसूस नही करता है। समाज एवं व्यक्तियों के प्रति पूर्ण समर्पित अवश्य रहिये, लेकिन उनसे कुछ प्राप्त होगा, ऐसी अपेक्षा अथवा आशा मत रखिये। निःस्वार्थ भाव से केवल अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते रहिए। प्रसन्न एवं सुखी रहने का यही एक मूलमंत्र है।

   
14.

किसी के साथ किसी भी तरह की प्रतियोगिता की कोई भी जरूरत नहीं है। आप जैसे भी हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं, अतः पूरी तरह से स्वयं अपने आपको स्वीकार करें। आपकी स्वयं की स्वीकार्यता ही आपमे विश्वास एवं आत्मबल का चार करेगी। इसके विपरीत यदि स्वयं को ही तिरस्कृत करेंगे और खुद में कमियां ढूंढेंगे, तो फिर दूसरे लोग पको किस तरह से एवं क्यों स्वीकार कर पायेंगे। सत्य यही है कि आप स्वयं में प्रभु की एक अप्रतिम रचना हैं, जिसमें कोई खोट ढूंढना, ईश्वर के कृतित्व में कमियां निकालना होगा। हमारा प्रतिद्वंदी स्वयं हम हैं, कोई और नही। हमको स्वयं से बेहतर बनना है। दिन-तिदिन खुद में ही परिवर्तन व सुधार लाते हुए खुद को पहले से ज्यादा सकारात्मक तथा स्वीकार्य बनाना है।

   
15.

आप एक कप में चाय पी रहे हैं। कोई आता है आपसे टकराता है और चाय गिर जाती है। सवाल है चाय क्यों गिरी ? आप कहेंगे वो टकराया इसलिए। जवाब है - इसलिए गिरी क्योंकि आपके कप में चाय थी अगर कॉफी होती तो कॉफी गिरती। इसी तरह आपके जीवन में कोई ना कोई घटना आपसे टकराएगी। दुर्घटना होनी ही है। क्या छलकेगा इसपर निर्भर करता है कि आपके कप में क्या है। क्रोध, अहंकार, घृणा, ईर्ष्या या समझदारी, प्रेम, संयम ? वही छलकेगा जो भीतर होगा। ये घटनाएं एक तरह से आपकी ही परीक्षा है। भीतर झकिए। क्या है आपके भीतर ?

   
16.

आपकी मनोवृत्ति ही आपकी महानता को निर्धारित करती है। अर्थात, आपके मन के विचार, आपका दृष्टिकोण, आपकी सोच एवं आपके संस्कार ही आपके जीवन-स्तर का निर्धारण करेंगे। आपका वर्तमान एवं भविष्य, दोनो का निर्माण स्वयं आपके अपने हाथों में है। जीवन के प्रति जैसा आपका दृष्टिकोण तथा विचार होंगे, वैसी ही आपकी कार्यप्रणाली एवं नीतियां हो जायेंगी। यही आपके जीवन की दिशा तथा दशा का निर्धारण करेंगी। दूसरों के प्रति अपने दृष्टिकोण एवं सोच को सदैव सकारात्मक एवं उच्च स्तर का रक्खें। निर्मल तथा निष्पाप विचार समाज में उचित सम्मान प्रदान करते हैं। याद रहे, आपके व्यक्तित्व द्वारा अर्जित महानता आपके जीवन- काल के बाद भी निरन्तर बनी रहती है। आपका आज का दिन अत्यन्त शुभ, सुखद, समृद्ध एवं मंगलकारी हो।

   
17.

21 मन सदैव से ही अशांत रहता है, और उसे नियंत्रित करना अत्यन्त कठिन है। लेकिन निरंतर अभ्यास से इसे वश में किया जा सकता है। यदि सब कुछ अच्छा हो रहा है, अपने मन के मुताबिक हो रहा है, तो भी कोई न कोई जाना-अंजाना सा भय मन को अशांत रखता है। और कुछ नही तो यह अपने अच्छे समय के समाप्त होने की आशंका से ही व्यथित होकर अशांत होने लगता है। इसके विपरीत जब भी कभी परिस्थितियां अपने मन के मुताबिक तथा अपनी योजना के अनुरूप ना हों तो मन का व्यथित एवं अशांत होना स्वाभाविक है। किन्तु जिसने अच्छी व बुरी, दोनो परिस्थितियों में स्वयं को नियंत्रित कर लिया,अपने मन व विचारों को शांत रखते हुए सभी संभावनाओं एवं अवस्थाओं को एक-रूपता से स्वीकार करने योग्य बना लिया, वास्तव में वह ही सार्थक साधक है।

   
18.

अपनी वाणी को जितना हो सके निर्मल और पवित्र रखें, क्योंकि संभव है कि कल आपको अपने बोले गये शब्दों को स्वयं वापस लेना पड़े। निर्मल वाणी से मन जीते जाते हैं। हमारे शब्द और उनको कहने का ढंग यदि कोमल एवं शालीन है तो हमारे विचार सीधे हृदय को स्पर्श करेंगे। सुनने वाला हमारे विचारों से प्रेरणा लेकर उनका पालन एवं अनुसरण करेगा। किन्तु यदि वही विचार कठोर एवं आक्रामक वाणी द्धारा कहे जाएं, तो निश्चित रूप से उन विचारों को आरोपों के रूप में लिया जायेगा व भिन्न तर्कों-कुतर्कों के साथ विवाद की स्थिति उत्पन्न होगी। याद रखिये, यदि अपने कहे कठोर एवं कड़वे शब्दों को हमको वापिस लेना पड़ा तो स्वयं हमारा हृदय ही अपमानित एवं व्यथित होगा।

   
19.

 व्यर्थ बोलने की अपेक्षा मौन रहना यह वाणी की प्रथम विशेषता है, सत्य बोलना वाणी की दूसरी विशेषता है, प्रिय बोलना वाणी की तीसरी विशेषता है और धर्मगत बोलना वाणी की चौथी विशेषता है। यह चारों ही क्रमशः एक दूसरे से श्रेष्ठ है।

   
20.

जो मन से हार नहीं मानता उसे दुनिया की कोई ताकत हरा नहीं सकती। वास्तव में हमारी जीत का आधार हमारे अपने विश्वास से शुरू होता है। किसी भी कार्य को करने से पहले यदि मन मे उसको सफलता पूर्वक संपन्न करने का विचार एवं संकल्प हो तो उस कार्य में सफल होना निश्चित है। इसके विपरीत यदि शुरुआत करने से पहले ही आपने किसी कार्य के होने में अड़चनों व परेशनियों की संभावनाएं देख ली, तो उस कार्य का संपन्न होना लगभग असंभव ही हो जाता है। अतः यदि सफलता हासिल करनी है तो पहले उसके लिए अपने मन, विचार व कर्म में सकारात्मकता के साथ दृढ़ निश्चय से संकल्प लेकर विजय तथा सफलता के मनोबल के साथ कार्य प्रारंभ करें।

   
21.

मुश्किलें वो चीज़ें होती हैं, जो हमें तब दिखती हैं, जब हमारा ध्यान अपने लक्ष्य पर नहीं होता। जब हमें पने किसी लक्ष्य को प्राप्त करना है, तो हमें अपना पूरा ध्यान सिर्फ उस लक्ष्य पर ही केंद्रित करते हुए उसे हासिल करने हेतु प्रयासों पर लगाना होगा। उन सभी संभावनाओं पर विचार करना होगा जो उस लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक सिद्ध हो। उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमारी मानसिक दृढ़ता, पूर्ण सकारात्मक दृष्टिकोण व कड़ी मेहनत ही कारगर होगी। लक्ष्यसिद्धि के अलावा किसी अन्य संभावना या विकल्प पर विचार करना भी अपनी दृष्टि व प्रतिबद्धता को लक्ष्य से दूर ले जाकर भटकाना ही होगा। अतः लक्ष्य को प्राप्त करने के सकारात्मक विचार के साथ ही उसके लिए निरन्तर कठिन प्रयास करें। मुश्किलें स्वतः ही समाप्त हो जाएंगी।

   
22.

हमारे अन्दर सबसे बड़ी कमी यह है कि हम चीजों के बारे में बात ज्यादा करते हैं और काम कम| हमारी यही कमी हमको हमारे लक्ष्य से भटकाते हुए आलस्य एवं अकर्मण्यता के जाल में फंसा देती है,जो अंततः हमको असफल बना देती है। अतः अपने जीवन को कर्मप्रधान बनायें, वाक़प्रधान नही। पूर्ण ईमानदारी से कर्म करते हुए अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर आगे बढ़ते रहिये। तर्क और कुतर्क ही करते रहे तो समझ लीजिए, समय किसी की भी प्रतीक्षा नही करता। उसको तो बस अपनी गति से चलना है। वो आपके तर्क के कसौटी पर खरा उतरने तक की प्रतीक्षा नही कर सकता। एक बार गुण एवं दोष का विचार करते हुए लक्ष्य निर्धारित कर लिया, फिर उसको हासिल करने हेतु सिर्फ कर्म करिये, तर्क-कुतर्क या बातें नही। *अहंकार और संस्कार में फर्क है, अंहकार दूसरे को झुकाकर खुश होता है। संस्कार स्वयं झुककर खुश होता है।*

   
23.

अपने घटिया नज़रिये का अहसास हो जाने पर भी हम उसे बदलते क्यों नहीं ? वास्तव में यह मानव प्रवृत्ति है कि हमे कभी भी अपनी कोई भी कमी दिखाई नही देती। हम हमेशा दूसरों में ही कमियां ढूंढते रहते हैं। यह और कुछ नही वरन हमारा अपना अहं है, जो हमेशा स्वयं को स्थायी रूप से सही और दूसरों को गलत समझता है। इस खोखले और झूठे अहंकार के कारण ही हम अपनी स्वयं की कमियों का पता चलने पर भी उनके लिए दूसरों पर दोषारोपण हेतु उसके कारणों को भी बाहर ही ढूंढते है। यह प्रवृत्ति ही हमारे नकारात्मक होने का प्रमाण है, और अपने में विद्यमान इसी नकारात्मकता का हमे विरोध करना है। अपने आप से लड़ना है, अपनी कमियों एवं दोषों को पहचानना है एवं उनका विष्लेषण करते हुए आत्मचिन्तन तथा अन्तर-अवलोकन करना है। अपने स्वयं के दोष ढूंढना यद्यपि सबसे कठिन…

   
24. प्रत्येक मनुष्य में तीन प्रकार के चरित्र होते हैं -

एक जो वह दिखाता है, दूसरा, जो उसके पास वास्तव में होता है, और तीसरा, जो वह सोचता है कि उसके पास है। हमारा पूरा जीवन इस तरह तिहरे चरित्रों को जीते-जीते संभवतः अपने मूल स्वरूप को ही खो देता है। यदि हम सिर्फ दिखावे को त्याग कर अपने अंदर की सच्चाई को पहचाने, और उसी सच्चाई में जीवन जीने का साहस करें, तो ये हमारे मूल-चरित्र को निश्चित रूप से पारदर्शी, सहज, सरल एवं सर्व-स्वीकार्य बना सकता है। अपने मूल चरित्र में जीवन को जीने में ही आपके अदम्य साहस का परिचय है। थोड़ा सा मुश्किल ज़रूर है, लेकिन असंभव नही। प्रयास तो करके देखिए।

   
25.

सफल होने के लिए, सफलता की इच्छा, असफलता के भय से अधिक होनी चाहिए। यह सत्य है कि हमारे हर लक्ष्य की प्राप्ति से पहले तक हमारे अन्दर एक भय व्याप्त रहता है। यह भय होता है असफल होने का। अक्सर यह अनजाना भय ही हमारे सफलता हेतु किये गए प्रयासों को क्षीण कर देता है, जिससे हमारी स्पष्ट सफलता भी संदिग्ध हो जाती है। सफलता निश्चित करने का एक ही रास्ता है, "सफलता की इच्छा शक्ति" का इतना तीव्र होना कि उसके समक्ष असफल होने के सभी तरह के भय बौने हो जाएं। जब तक मन में सफलता हेतु संदिग्धता रहेगी, किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति निश्चित नही हो सकती।

   
26.

डर का ना होना साहस नही है, बल्कि डर पर विजय पाना साहस है। बहादुर वह नहीं है जो भयभीत नहीं होता, बल्कि बहादुर वह है जो इस भय को परास्त करता है। सच्चाई यही है कि डर सब को लगता है। आपके पास जो भी है, वो कम हो या ज्यादा, उसको खोने का डर हमेशा रहता है। हानि होने का भय, फिर वो चाहे आर्थिक हानि हो, सामाजिक व पारिवारिक पीड़ा हो या प्रतिकूल स्वास्थ्य हो, सभी को मानसिक रूप से प्रताड़ित एवं सशंकित रखता है। जिस व्यक्ति ने इस डर पर काबू पा लिया, अपनी किसी भी तरह की हानि होने से विचलित न होने का साहस प्राप्त कर लिया, आने वाली किसी भी परेशानी अथवा मुसीबत का डटकर सामना करने का जज़्बा पैदा कर लिया, सही अर्थों में वह ही साहसी व सफल व्यक्तित्व का धनी है। वर्तमान में कोरोना महामारी के काल में प्रत्येक व्यक्ति में ऐसे ही जज्बे एवं साहस की अत्यन्त आवश्यकता है।

   
27.

नकली सुख की बजाय ठोस उपलब्धियों के पीछे समर्पित रहिए।ऐसा सुख या प्रसन्नता, जो केवल भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति पर ही निर्भर रहता है, और सिर्फ हमारे स्थूल शरीर को प्रभावित करता है, वो कभी भी सत्य पर आधारित वास्तविक सुख अथवा लाभ नही हो सकता। ऐसा सुख क्षणिक एवं क्षणभंगुर होता है, और समय एवं अवसर के अनुसार इसकी प्रकृति भी बदलती रहती है। ऐसे सुख की इच्छा भी कभी समाप्त नही होती, बल्कि पूर्ति के साथ और बढ़ती ही जाती है। इसके विपरीत ठोस एवं पूर्ण सत्य पर आधारित वास्तविक उपलब्धियां चाहे आपके भौतिक सुख में कोई तात्कालिक वृद्धि ना करें, किन्तु आपके मन एवं आत्मा को संतोष प्रदान करते हुए अनुभूति दिलाती हैं कि आपने अपने जीवन के उन लक्ष्यों को प्राप्त कर लिया है, जो आपको और आपके परिवार को समाज मे सम्मान के साथ स्थापित करेंगे। लक्ष्यसिद्धि न केवल आपकी जिज्ञासा को शांत करती है, बल्कि आपको चिरस्थायी आत्मिक सुख व संतोष प्रदान कर मन एवं मस्तिष्क को पूर्ण रूप से आनंदित करती है।

   
28.

मन सदैव से ही अशांत रहता है, और उसे नियंत्रित करना अत्यन्त कठिन है। लेकिन निरंतर अभ्यास से इसे वश में किया जा सकता है। यदि सब कुछ अच्छा हो रहा है, अपने मन के मुताबिक हो रहा है, तो भी कोई न कोई जाना-अंजाना सा भय मन को अशांत रखता है। और कुछ नही तो यह अपने अच्छे समय के खत्म होने की आशंका से ही व्यथित होकर अशांत होने लगता है। इसी तरह जब कभी कुछ अपने मन के मुताबिक या अपनी योजना के अनुसार ना हो रहा हो, तो भी मन का व्यथित व अशांत होना स्वाभाविक है। किन्तु जिसने अच्छी व बुरी, दोनो परिस्थितियों में स्वयं को नियंत्रित कर लिया,अपने मन व विचारों को शांत रखते हुए सभी संभावनाओं एवं अवस्थाओं को एक-रूपता से स्वीकार करने योग्य बना लिया, वास्तव में वह ही सार्थक साधक है।

   
29.

दूसरों का मज़ाक़ बनाना मानव स्वभाव है। जब भी किसी को मौका मिलता है, वह दूसरे को नीचा दिखाने के लिए कोई मौका नही चूकता। परन्तु कभी-कभी हमारी भद्दी या असमय मज़ाक़ के रूप में की गई अभद्र टिप्पणी सदैव के लिये सम्बन्धों में कटुता का कारण बन जाती है। महाभारत का युद्ध इसका साक्षी है। कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी अपने पर की गई अपमानजनक टिप्पणी को उस समय तो बर्दाश्त कर लेता है, परन्तु उसके ह्रदय में सदैव टीस रहती है। वह वक़्त का इंतज़ार करता है व उसको जब भी प्रतिकार करने का अवसर मिलता है, अवश्य करता है। अतः व्यर्थ की टीका - टिप्पणी से बचना चाहिए, और अगर ऐसा कभी हो भी जाए तो बिना किसी तर्क के, सच्चे मन से क्षमायाचना कर लेनी चाहिये। हमारा व्यवहार ही हमारे चरित्र का दर्पण है।

   
30. असफलता के बाद भी दूसरा सपना देखने के हौसले को ही “जीवन” कहते हैं। असफल होने का अर्थ हारना नही है। असफलता सिर्फ यह इंगित करती है कि सफलता हेतु प्रयास पूरे मन से नही किये गए, अथवा आत्मविश्वास व संकल्प में कोई कमी रह गई होगी। प्रत्येक नव-दिवस का स्वागत इस विश्वास के साथ करें कि सफलता के लिए पूरे मन से प्रयास किये जायेंगे व असफलताओं से कभी निराश एव परास्त नही होंगे, और ना ही कभी किसी से हार मानेंगे।
   
31.

बिना संघर्ष कोई महान नहीं बनता है। ज़िन्दगी जीने के लिए संघर्ष तो करना ही पड़ता है। परिस्थितियाँ हमारे हाथ में नहीं रहती है परन्तु हमारी मन:स्थिति तो हमारे अपने वश में है। आवश्यकता है मनःस्थिति पर नियंत्रण की। मन:स्थिति पर नियंत्रण रखने वाला हर परिस्थिति में सहजता से ही आनन्द प्राप्त कर लेता है। जो प्रशंसा से पिंघलता नहीं, आलोचना से उबलता नहीं, वह जीने का आनंद प्राप्त कर लेता है। "जो प्राप्त है - वह पर्याप्त है" मानने वाला ही संतुष्ट रहता है।

   
32.

निर्माण केवल पहले से मौजूद चीजों का प्रक्षेपण है। यह सत्य है कि इस सृष्टि में जो कुछ भी उपलब्ध है, उस को ना तो समाप्त ही किया जा सकता है, और ना ही उसका उत्पादन या निर्माण ही किया जा सकता है। वास्तव में प्रकृति द्वारा जो पहले से प्रदत्त है, उसको अपने उपयोग में लाने के लिए उसके स्वरूप, स्थिति तथा स्वभाव में परिवर्तन ही निर्माण एवं/अथवा उत्पादन है। वास्तविक निर्माणकर्ता तो प्रकृति है, जो साक्षात ईश्वर का स्वरूप है। हमारे सामर्थ्य की सीमा तो सिर्फ उपलब्ध वस्तुओं के गुण व स्वरूप में परिवर्तन तक की है। जब हम एक सीमा से अधिक जा कर प्रकृति का दोहन करते हुए उस का संतुलन बिगाड़ देते हैं, तो फिर हमारे स्वयं के अस्तित्व के लिए भी खतरा उत्पन्न हो जाता है। वर्तमान में संक्रमण काल की महामारी शायद इसी ओर इंगित कर रही है।

   
33. क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मृति भ्रांत हो जाती है, स्मृति भ्रांत हो जाने से बुद्धि का नाश हो जाता है, और बुद्धि नष्ट होने पर प्राणी स्वयं ही नष्ट हो जाता है। स्पष्ट रूप से पतन के मूल में सिर्फ क्रोध ही है। आपका क्रोध आपको समूल रूप से नष्ट करने में सक्षम है। यही जीवन में चहुँ ओर क्लेश, वैर, नकारात्मकता एवं हानि पहुंचाने में समर्थ है। तो फिर क्यों न पतन से पहले ही उसके मूल को नियन्त्रित कर लिया जाए, अथवा उसे पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया जाए। प्रयत्न कीजिये, कुछ भी असंभव नही है। पतन में जाने से बचना प्रगति की पहली सीढ़ी है। उस पर पांव रखने में जरा सा भी संशय ना करें। अपने क्रोध पर पूर्ण नियंत्रण रक्खें।
   
34.

दुनिया का सबसे बेहतरीन रिश्ता वहीं होता है, जहाँ एक हल्की सी मुस्कराहट और छोटी सी माफ़ी से ज़िन्दगी दोबारा पहले जैसी हो जाती है*

   
35.

अत्यधिक महत्त्वाकांक्षाओं से बड़ी कोई विपत्ति नहीं है, और लालच से बड़ा कोई अमंगल नहीं है। व्यक्ति को महत्वाकांक्षी होना चाहिए, प्रगति के पथ की यह पहली सीढ़ी है। बिना किसी भी सपने या महत्वाकांक्षा के ना तो लक्ष्य निर्धारित होते हैं, और ना ही उनको प्राप्त करने की प्रेरणा मिल पाती है। किन्तु अपनी क्षमता एव सामर्थ्य से अधिक की महत्त्वाकांक्षा रख कर आवश्यकता से अधिक के लिए एक सीमा से अधिक जाकर प्रयास करना घातक हो सकता है। यह लालच की श्रेणी में आता है, जो नकारात्मक ऊर्जा का स्रोत है, और मनुष्य को निश्चित पतन की ओर ले जाता है।

   
36.

जीवन में घटित होने वाली सामान्य घटनाओं के साथ साथ होने वाली दुर्घटनाओं एवं हादसों में भी अक्सर बड़े महत्व के नैतिक पहलू छिपे हुए होते हैं। हमें उन दुर्घटनाओं को भी एक शिक्षा और जीवन की सीख की तरह लेना चाहिए और उनसे सबक लेते हुए ही अपने भविष्य की नीतियों एवं लक्ष्यों को पुनर्निर्धारित करना चाहिए। ये सभी होने वाले तथाकथित हादसे एवं दुर्घटनायें हमारे जीवन की दिशा को पुनः निर्धारित करने हेतु ही होती हैं, और उनका उद्देश्य हमारी क्षमताओं को और अधिक विकसित करते हुए जीवन को गतिशील एवं कर्मठ बनाना एवं सही दिशा प्रदान करना होता है।

   
37. दीर्घायु होना नहीं बल्कि जीवन की गुणवत्ता का महत्व होता है। दीर्घायु होना स्वयं मे महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह जीवन सिर्फ एक बार ही मिलता है। इसको जितना अधिक जी सकें, उतना ही अच्छा है। किंतु इस जीवन को कितनी सकारात्मकता से व परमार्थ हेतु जिया, इस बात का महत्व दीर्घायु होने से कहीं ज्यादा है। यदि हमने अपने उद्देश्य की प्राप्ति नही की, घर, परिवार, समाज एवं राष्ट्र की उन्नति के लिए कोई योगदान नही दिया, किसी रोते हुए मासूम चेहरे पर मुस्कान नही ला सके, और सिर्फ स्वार्थवश रहते हुए स्वयं के भौतिक उत्थान में ही लीन रहे, तो ऐसे जीवन का कोई महत्व नही रह जाता। गुणवत्तापूर्ण जीवन को व्यतीत करना दीर्घायु होने से कही अधिक महत्वपूर्ण, आवश्यक एवं सार्थक है। जीवन ऐसा सर्व-जन-हिताय व सकारात्मक होना चाहिए, कि लोग आपके जाने के बाद भी आपकी कमी महसूस करते रहें।
   
38.

हमें जो कुछ भी आकर्षक और सुंदर दिखता है, वह सदैव सत्य एवं श्रेष्ठ भी हो, यह आवश्यक नहीं है। हर चमकती हुई धातु सोना अथवा चांदी ही हो, यह आवश्यक नही है। किन्तु जो कुछ भी सत्य एवं श्रेष्ठ है, सरल है, वह सदैव ही दुर्लभ, मूल्यवान आकर्षक एवं विशिष्ट ही होगा, यह सर्वमान्य सत्य है। अतः जीवन में हमेशा उन लोगों के प्रति ही आकर्षित हों, तथा उन लोगों को ही पसंद करें, जिनकी सोच व मन सरल, सत्य, पारदर्शी एवं श्रेष्ठ हैं, तथा जिन लोगों के चेहरे से अधिक उनके विचार, चरित्र, व संस्कार आकर्षक एवं सुदंर हैं। यह तथ्य हमेशा याद रखिये कि मन तथा मस्तिष्क की सुन्दरता से बढ़ कर कुछ भी सुंदर एवं आकर्षक नही हो सकता।

   
39.

जिस समय जिस काम के लिए प्रतिज्ञा करो, ठीक उसी समय पर उसे पूरा करना ही चाहिए, नहीं तो लोगों का आप पर से विश्वास उठ जाएगा। आपकी विश्वसनीयता ही आप की एक ऐसी पूंजी है, जिससे आप को सम्मान मिलता है। अपनी विश्वसनीयता बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि हम कोई भी प्रतिज्ञा अथवा संकल्प लेने के बाद उसे पूरी प्रतिबद्धता के साथ निभायें। यह समाज हमको धिक्कारने, प्रताड़ित करने व दोषी साबित करने के लिए हमारी सिर्फ एक गलती व लापरवाही की प्रतीक्षा करता है। हम अपना भरसक प्रयास करें कि किसी को भी यह अवसर ही ना मिले। इसके लिए आवश्यक है कि हम अपनी की गई प्रतिज्ञाओं, वादों एवं संकल्पों को पूरी ईमानदारी एवं शिद्दत से दी गई समयावधि में निभायें।

   
40.

जब तक आप किनारे को छोड़ कर नहीं जाएंगे, तब तक आप समुद्र पार नहीं कर सकते।
साधारणतः मनुष्य का स्वभाव यही है कि वो जिस स्थिति में है, बस उसी में बने रहना चाहता है, उसमें परिवर्तन नही चाहता। उसको उस स्थायित्व में ही सुख एवं सुविधा का अनुभव होता है। किन्तु सत्य यह है कि यदि प्रगति की राह पर आगे बढ़ना है, यदि जीवन में नए लक्ष्यों को हासिल करना है, तो वर्तमान स्थिति में परिवर्तन आवश्यक है। स्थायित्व का मोह छोड़ना ही होगा। यदि नदी पार करनी है, एवं समुद्र की गहराई को नापना है, तो किनारों का मोह त्यागना ही होगा। एक स्थिति में रह कर सिर्फ कूपमंडूक ही बने रह सकते है। परिवर्तन को स्वीकार कीजिये व प्रगति के पथ पर आगे बढ़ते रहिए।

   
41.

कोई इतना अमीर नहीं होता कि वो अपना बीता हुआ वक्त खरीद सके, और कोई इतना गरीब भी नहीं होता कि स्वयं अपने आने वाले समय को न बदल सके। जो घटनायें घटित हो चुकी हैं, वो चाहे शुभ रही हो या अशुभ, अच्छी या बुरी, लाख प्रयास करके भी उनको बदला नही जा सकता। कोई कितना भी पराक्रमी, बलवान, बाहुबली या धनवान क्यों न हो, गुजरे वक़्त को कोई भी वापस नही ला सकता, और न ही उस समय घटित हुई घटनाओं में कोई बदलाव ही ला सकता है। किन्तु जो अभी घटित नही हुआ, जो अभी लिखा या कहा ही नही गया, उस पर तो अभी हमारा पूर्ण नियंत्रण है। भविष्य को तो अभी संभाला एवं संवारा ही जा सकता है। कोई कितना भी निर्बल,निर्धन व असहाय क्यों न हो, उससे स्वयं उसका भविष्य लिखने व सवांरने का अधिकार तो कोई भी नही ले सकता। अब यह स्वयं उस पर ही निर्भर करता है कि वह अपने लिए किस तरह का तथा कैसा भविष्य लिखना चाहता है।

   
42.

यह एक अकाट्य सत्य है कि, एक सच्चा शुभ चिंतक आपके हर तरह के गुण-दोष का विशुद्ध विश्लेषण करके आपको बताता है, और फिर आपके दोषों को दूर करने का सच्चे मन व ईमानदारी से प्रयास करता है। मगर ‘धोखा’देने वाला सिर्फ आपको अच्छी लगने वाली बातें ही करता है। जो आपसे स्नेह रखता है, वह हमेशा आपका भला चाहेगा, और आपकी अच्छी-बुरी हर तरह की बात आपसे करके आपके गुण दोष दोनो आपको बताएगा, और कोशिश करेगा कि आपके सभी दोष दूर हो और आप पूर्ण रूप से दोषमुक्त होकर गुणी बने और सर्वत्र आपकी प्रशंसा एवं स्वीकार्यता हो। इसके विपरीत आपको धोखा देकर दगा करने वाला सिर्फ अपनी स्वार्थ सिद्धि हेतु आपका उपयोग करना चाहेगा। इसके लिए वह सदैव सिर्फ आपको अच्छी लगने वाली बातें ही कहेगा। आपके दोष या कमियों को दूर करने की कोशिश नही करेगा। और अपना स्वार्थ सिद्ध होते ही वह आपको आपके हाल पर छोड़ कर चला जायेगा।

   
43.

मूर्ख मनुष्य क्रोध को जोर-शोर से प्रकट करते हैं, किंतु बुद्धिमान मनुष्य शांति से उसे वश में करते हैं। ये सहज है कि किसी न किसी बात पर कभी ना कभी सभी को क्रोध आता है। किंतु क्रोध के उन क्षणों में आपके द्वारा किया गया व्यवहार ही आपके व्यक्तित्व का सटीक परिचय देता है। साधारणतयः संकीर्ण सोच के ही लोग क्रोध आने पर क्रोध को जोर शोर से प्रकट करके अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं, जो स्थायी नही रहता। ऐसी प्रवृत्ति के लोग नितांत मूर्ख, नकारात्मक सोच एवं भ्रष्ट बुद्धि के होते हैं। इसके ठीक विपरीत बुद्धिमान एवं संतुलित मस्तिष्क के व्यक्ति क्रोध के क्षणों में स्वयं पर पूर्ण नियंत्रण रखते हुए शांत-चित्त रहकर क्रोध के मूल कारणो का पता लगाने का ईमानदार प्रयत्न करते हैं, और फिर उसको दूर करने का सार्थक तथा ईमानदार प्रयास करते हैं।

   
44.

हम महानता के सबसे करीब तब होते हैं जब हम विनम्रता में महान होते हैं। धनबल, बाहुबल अथवा अन्य किसी हिंसक कृत्य से तत्काल लाभ व समर्पण तो हासिल कर सकते हैं, किन्तु यह समर्पण व लाभ निश्चित रूप से ही क्षणिक, तात्कालिक एवं प्रभावहीन होगा व बल के प्रभाव के समाप्त होते ही यह ना केवल स्वतः समाप्त हो जाएगा, बल्कि पहले से भी कहीं अधिक शक्तिशाली व कट्टर शत्रु उत्पन्न कर देगा। इस के विपरीत विनम्रता से हम दिलों को जीत सकते हैं। विनम्रतापूर्ण व्यवहार करने से दोनो पक्षों की तरफ से स्वयमेव ही स्थायी समर्पण होता है, कोई अंतर्विरोध या लाग-लपेट नही होता है। जितना ही अधिक विनम्रता का भाव होगा, समर्पण की भावना भी उतनी ही तीव्र एवं स्थायी होगी। विनम्रता ही मानव मात्र को महान बनाती है, जो अक्षुण्ण एवं चिरस्थायी रहती है। ज्ञान के लिए किये गए निवेश में हमेशा अच्छा प्रतिफल प्राप्त होता है। ज्ञान एक ऐसी पूंजी है जिसे ना तो कोई छीन सकता है और ना ही चुरा सकता है। यह सदा साथ रहने वाला एक ऐसा निवेश है, जो हर देश, काल एवं परिस्थिति में साथ देता है। इस अति-विशिष्ट पूंजी से आकर्षित हो कर अन्य लाभ तथा सेवाएं स्वयमेव ही उपलब्ध हो जाती हैं। उनके लिए कोई बहुत खास प्रयास नही करना पड़ता। ज्ञान स्वयं ही हर तरह की पूंजी, लाभ एवं सुविधा को आकर्षित करने वाला मूल कारक है। हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि हम इस पूंजी के प्रकाश से जन-जन को आलोकित करते हुए इसका हर स्तर पर उपयोग करें। यह निर्बाध एवं असीमित मात्रा में निरन्तर फल प्रदान कर सुख देने वाला अद्भुत निवेश है। निरंतर व अंतिम क्षण तक ज्ञान अर्जित करने की जिज्ञासा को अक्षुण्ण रक्खें।

   
45.

बुद्धिमान व्यक्ति को समाज कल्याण के लिए बिना आसक्ति के काम करना चाहिए। आसक्ति का अर्थ है जहाँ स्वयं का हित समाहित हो। हमें सब के कल्याण हेतु ही कर्म करना है व हमारा हर कृत्य सर्वत्र समाज के सम्पूर्ण हित हेतु होना चाहिए। समाज के कल्याण का अर्थ है, सब के लिये समान रूप से लाभ देने वाला। यदि हमारे हृदय में आसक्ति आ गई, चाहे वह स्वयं के लाभ हेतु हो अथवा अपने किसी प्रिय या संबंधी के प्रति, तो हमारे द्वारा किया गया कार्य तथा सेवा स्वयं अपने अथवा उस व्यक्ति विशेष के हित को साधने हेतु ही होगी, जिसके साथ ही सर्व-समाज की सेवा अथवा समाज के हित की भावना को आघात पहुंचेगा। अतः जब भी समाज के हित की बात हो तो आसक्ति से दूर रहें।

   
46.

न्याय विपरीत पाया धन, वास्तव में धन नहीं है, वरन नकारात्मक ऊर्जा का स्रोत है। ऐसा कोई भी लाभ अथवा सहायता, जिसके न्यायसंगत पात्र आप नही बल्कि कोई और है, और न्यायविरुद्ध वह आपको दिया जा रहा है, तो विश्वास कीजिये, वह लाभ या सहायता आपके निरन्तर पतन एवं पराभव का ना केवल प्रथम चरण है, बल्कि वह भविष्य में आपकी पराजय तथा विनाश का मूल कारण भी बनेगा। न्यायविरुद्ध अर्जित धन एवं लाभ अपने साथ ना केवल नकारात्मक ऊर्जा का स्रोत लेकर आता है, अपितु वह उसके न्यायसंगत पात्र की उन आहों एवं बददुआओं को भी लेकर आता है, जो अंतहीन एवं निरंतर आर्थिक हानि के साथ ही सम्पूर्ण कुल के पराभव का कारण भी बनती है। अतः न्याय के विपरीत प्राप्त होने वाले धन एवं लाभ को अपने एवं अपने परिवार के जीवन से दूर ही रखना श्रेयस्कर होगा।

   
47.

सबसे बड़ा अपराध है अन्याय सहना और गलत व्यक्ति के साथ समझौता करना यह नकारात्मक प्रवृत्ति एवं पलायनवादी दृष्टिकोण है| जब हम किसी शक्तिशाली,प्रभावी किंतु नकारात्मक प्रवृत्ति के व्यक्ति का अन्याय सहते हैं तो, यह अपने आप पर स्वयं अन्याय एवं प्रताड़ना करने के समान है। यह हमारे भीतर नकारात्मकता को जन्म देकर हमको हिंसक बनाती है, और हम बदले में अपने से कमजोर व्यक्ति पर अत्याचार करने को प्रवृत्त होते हैं। इसी प्रकार, यदि हम गलत व्यक्ति के साथ समझौता करते हैं अथवा उसका साथ देते हैं, तो हम तत्काल प्रभाव से नकारात्मकता को ओढ़ते हुए अन्याय करने हेतु स्वयं को तैयार कर लेते हैं। हमको इस नकारात्मक ऊर्जा एवं हिंसात्मक प्रवृत्ति को किसी भी तरह अपने जीवन मे प्रवेश करने से रोकना है। ना स्वयं अन्याय सहना है और ना ही किसी के साथ अन्याय करना या होने देना है।

   
48.

जब आप कुछ गंवा बैठते हैं, तो उससे प्राप्त शिक्षा को न गंवाएं। जीवन स्वयं में एक घटनाचक्र है, जहाँ कुछ घटनायें सुख तो कुछ दुख, कुछ लाभ तो कुछ हानि पहुंचाती हैं। अब ये सब हमारे विवेक पर निर्भर करता है कि हम विपरीत तथा विकट परिस्थितियों में भी किस प्रकार व्यवहार करते हैं, और खुद पर कैसे नियंत्रण एवं संयम रखते हैं। इसके अतिरिक्त महत्वपूर्ण यह भी है कि कष्ट, दुख व हानि का घटना-चक्र भी हमको कुछ न कुछ शिक्षा व ज्ञान प्रदान करता हैं। हम हानि व कष्ट होने पर कुछ गवां ज़रूर देते हैं, किन्तु उनसे शिक्षा लेते हुए ही हमें भविष्य का खाका खींचते हुए योजनाएं बनानी होंगी, ताकि वैसी हानिकारक एवं कष्टदायक घटनाओं की जीवन में पुनरावृत्ति न हो।

   
49.

मन की गतिविधियों, होश, श्वास तथा भावनाओं के माध्यम से ईश्वरीय शक्ति सदा हमारे साथ है। सत्य यही है कि इस जीवन मे अपना कहने को हमारे पास कुछ भी नही है। हमारी हर एक श्वांस किसी और के द्वारा ही प्रदत्त है एवं उसी के नियंत्रण में है। हमारे हृदय की धड़कनों पर भी हमारा अपना कोई नियंत्रण नही है। हमारी सोच, हमारे विचार, हमारी मूल भावनाएं, हमारे मन की चाल, व हमारे होशो-हवास भी हमारे नियंत्रण में नही हैं। फिर कोई तो है जिसका इन पर इनकी उत्पत्ति से लेकर अंत तक लगातार नियंत्रण है। कोई शक्ति तो है जो इन सब पर क्षण-प्रतिक्षण नियंत्रण रखते हुए निरंतर प्रवाहित हो रही है। वो एक शक्ति, जिसका लगातार बिना एक क्षण भी गवाये हमारी हर क्रिया एवं प्रतिक्रया पर पूर्ण नियंत्रण बना हुआ है, वह अपार, अगाध तथा सर्वोच्च है। उसको किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है। उसके सदा हमारे साथ बने रहने का सुखद एहसास ही हमारे अंतर्मन में अद्भुत शक्ति का संचार करने हेतु पर्याप्त है। हम को इस जीवन पथ पर उस अगम्य-अपार शक्ति पर सदैव पूर्ण भरोसा रखते हुए ही चलते रहना है। वर्तमान महामारी के संक्रमण काल में उस महाशक्ति पर यह भरोसा हमारे लिए प्राण वायु है।

   
50.

असफल होना कोई गुनाह नहीं है, लेकिन सफलता के लिए कोशिश ही ना करना ज़रूर गुनाह है। प्रयत्न पूरे मन से, अपने सामर्थ्य के अनुसार लक्ष्य निर्धारित करते हुए किया जाए, तो सफलता की निश्चित संभावना होती है। किंतु प्रयत्न करते हुए यदि असफलता भी हाथ लगती है, तो यह कोई अपराध नही है। अर्जित अनुभव के साथ निश्चित सफलता हेतुपुनः प्रयास किये जाने चाहिये। सफलता की धारणा रखना और फिर उसको प्राप्त करने के लिए प्रयास करने की दृढ़ इच्छा-शक्ति होना ही अति आवश्यक है। किन्तु कर्महीन रहकर प्रयास ही न करना ना केवल नैतिक अपराध की श्रेणी में आता है वरन पश्चाताप व आत्मग्लानि का कारण भी बनता है। अतः निश्चित सफलता के मूल सूत्र "कोशिश" को जारी रखिये और लक्ष्य प्राप्ति के लिए निरंतर ईमानदार प्रयास करते रहिए।

   
51.

आपके जीवन का नियंत्रण केन्द्र आपका अपना रवैय्या है। हम सब लोग इसी समाज मे रह रहे हैं, और सब अपनी ही समस्याओं से घिरे हुए हैं। सब अपने जीवन की लड़ाई स्वयं ही लड़ रहे हैं। लेकिन हम अपने जीवन मे कितने सफल हो पाएंगे, यह हमारी समस्याओं पर नही, अपितु हमारे अपने रवैय्ये पर निर्भर करता है। हम अपनी जीवन शैली को कैसा बनाते हैं, अपनी धारणा कैसी रखते है, परिवार तथा समाज के प्रति हमारा नज़रिया कैसा है, हम घटने वाली हर घटना के प्रति कितने संवेदनशील हैं... यही सब मिलकर हमारे जीवन की गुणवत्ता तय करते हैं। सारांश में, हम किस तरह का जीवन जीना चाहते हैं, यह स्वयं हम पर, हमारे रवैय्ये पर व हमारी सोच व दृष्टिकोण पर निर्भर करता है, हमारी समस्याओं व हमारे जीवन में निरंतर हो रही घटनाओँ पर नही।

   
52.

जो स्वयं अपने ऊपर विजय प्राप्त करता है, वही सबसे बड़ा विजेता कहलाता है। यह मानव स्वभाव है कि हम दूसरों की कमियों, गलतियों, एवं साधारण सी कमजोरियों की भी बहुत जल्दी पहचान करते हुए उसे बढ़ा-चढ़ा के बता कर उस पर बिना मांगे ही अपने सुझाव देने लगते हैं। किंतु स्वयं अपनी कमियों एवं कमजोरियों की ओर कभी भी कोई ध्यान नही देते। जब हम अपनी कमियों व कमजोरियों को ढूंढ कर उनको स्वीकारते हुए उनको दूर करने के लिये ईमानदारी से भरा प्रयास करते हैं, तो हमारी वही कमियां एवं त्रुटियाँ हमारी ताकत बन कर हमें साहसी तथा सही अर्थों में विजेता बनाती है।

   
53.

सुंदरता और सरलता की तलाश में हम चाहे सारी दुनिया घूम लें, लेकिन अगर वो स्वयं हमारे ही अंदर नहीं है, तो फिर सारी सृष्टि में कहीं भी नहीं होगी। सुन्दरता को देखने एवं पहचानने के लिये पहले अपने मन, सोच व विचार को सरल व सुन्दर बनाना होगा। इसके लिए आवश्यक है कि हम अपने हृदय की मैल व कटुता से मुक्ति प्राप्त करें। अपने मन की नकारात्मकता को खरोंच खरोंच कर साफ करें। एक बार जहां हमारा हृदय स्वयं ही साफ हो गया, सकारात्मक हो गया, तो निश्चित मानिए, संसार में उपलब्ध सम्पूर्ण सुंदरता एवं सरलता हमको स्पष्ट रूप से दिखने लगेगी, हृदय को प्रफुल्लित करेगी। हमें अपने मन से नकारात्मकता, नफरत व घृणा का चश्मा हटाना होगा, सारा संसार खुद ही सुंदर दिखने लगेगा।

   
54.

*पहाड़ों पर बैठ कर तप करना सरल है, लेकिन परिवार में सबके बीच रहकर धीरज बनाये रखना कठिन है और यही तप है, अपनो में रहें, अपने मे नही घर पर रहें सुरक्षित रहें*  

   
55.

जो मन को नियंत्रित नहीं करते, उनके लिए वह शत्रु के समान कार्य करता है। हमारे जीवन में अच्छाई व बुराई, सकारात्मकता व नकारात्मकता, हमारी अपनी सोच से ही उत्पन्न होती है, व हमारे जीवन को पूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं। हमारी सोच, हमारे विचार तथा हमारे संस्कार हमारी इच्छाओं के द्वारा एवं मन में चल रही उथल-पुथल से ही निर्देशित व संचालित होते हैं। ऐसे में यदि हमारा अपने मन पर नियंत्रण नही रहता, तो फिर निश्चित जानिए, स्वयं हमारा मन ही एक शत्रु समान व्यवहार करते हुए हमारे जीवन को सम्पूर्ण रूप से अनियंत्रित व अव्यवस्थित कर देगा। अतः अपने मन एवं विचारों पर नियंत्रण करना सीखिए, जिस के लिए निरंतर प्रयास व साधना की आवश्यकता होती है।

   
56.

वृक्ष कभी इस बात पर व्यथित नहीं होता कि उसने कितने पुष्प खो दिए, वह सदैव नए फूलों के सृजन में व्यस्त रहता है। जीवन में क्या कुछ खो गया, इस पीड़ा को भूल कर, हम क्या नया प्राप्त कर सकते हैं, इसी में हमारे जीवन की सार्थकता है। जो बीत गया, सो बीत गया। वक्त के पहिये को वापिस नही घुमाया जा सकता। बीते समय की अच्छी और बुरी घटनाओं से सिर्फ शिक्षा तथा अनुभव ही लिया जा सकता है, जिसका सदुपयोग भविष्य के लिए उत्कृष्ट कार्ययोजना व सुदृढ़ रणनीति तथा रूपरेखा बनाने में किया जाना चाहिये। यही उसकी सार्थकता व उपलब्धि होगी। धीरज तथा प्रेम से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है।

जिन्दगी की हर तपिश को मुस्कुरा कर झेलिए, “धूप कितनी भी तेज़ हो समंदर सूखा नहीं करते" मैदान में हारा हुआ फिर से जीत सकता है, परंतु मन से हारा हुआ कभी जीत नहीं सकता, आपका आत्मविश्वास ही आपकी सर्वश्रेष्ठ पूँजी है।

   
57.

जीवन में सही फैसले लेने में विश्वास कीजिये।ऐसा न हो कि नादान फैसले लेकर आप फिर उन्हें जीवन भर सही साबित करने का असफल प्रयत्न करते रहें। ग़लत फ़ैसले प्रायः तभी होते हैं, जब बिना किसी संकल्प के ही बहुत ज़्यादा विकल्प प्राप्त हों। सही, संतुलित एवं सटीक फ़ैसला लेने के लिये मात्र एक दृढ़ संकल्प की ही आवश्यकता होती है। अपना विशिष्ट लक्ष्य निर्धारित कीजिये, उसे प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय करिये, फिर उसके लिए ईमानदारी से एकाग्रचित्त होकर अपना शत-प्रतिशत देते हुए प्रयास कीजिये।

   
58.

अच्छे गुरु आपकी प्यास नहीं बुझाते, बल्कि आपको और अधिक प्यासा बनाते हैं, आप को जिज्ञासु बनाते हैं। ज्ञान अनंत है। इसको जितना अधिक प्राप्त करते जाएंगे, आप को स्वयं के अंदर उतना ही अधिक खालीपन महसूस होगा, और उसको भरने हेतु ज्ञान अर्जित करने की आप की प्यास और जिज्ञासा उतनी ही निरन्तर बढ़ती जाएगी। जितनी ज्यादा यह प्यास बढ़ेगी, स्पष्ट है, ज्ञान की उपलब्धि भी उतनी ही अधिक होगी। अच्छा शिक्षक और मार्गप्रदर्शक वह है, जो आपके अंदर अधिक से अधिक जानने की प्यास बड़ा सके, आपके अंदर और अधिक ज्ञान अर्जित करने की आग बुझने ना दे। ज्ञान अर्जित करने का क्रम साँसों के अंतिम क्रम तक समाप्त नही होना चाहिए।

   
59.

समस्या का समाधान इस बात पर निर्भर करता है कि हमारा सलाहकार कौन है। ये बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि, दुर्योधन शकुनि से सलाह लेता था और अर्जुन श्रीकृष्ण से.....*

   
60.

अपने घटिया नज़रिये का अहसास हो जाने पर भी हम उसे बदलते क्यों नहीं. ? वास्तव में यह मानव प्रवृत्ति है कि हमे कभी भी अपनी कोई भी कमी दिखाई नही देती। हम हमेशा दूसरों में ही कमियां ढूंढते रहते हैं। यह और कुछ नही वरन हमारा अपना अहं है, जो हमेशा स्वयं को स्थायी रूप से सही और दूसरों को गलत समझता है। इस खोखले और झूठे अहंकार के कारण ही हम अपनी स्वयं की कमियों का पता चलने पर भी उनके लिए दूसरों पर दोषारोपण हेतु उसके कारणों को भी बाहर ही ढूंढते है। यह प्रवृत्ति ही हमारे नकारात्मक होने का प्रमाण है, और अपने में विद्यमान इसी नकारात्मकता का हमे विरोध करना है। अपने आप से लड़ना है, अपनी कमियों एवं दोषों को पहचानना है एवं उनका विष्लेषण करते हुए आत्मचिन्तन तथा अन्तर-अवलोकन करना है। अपने स्वयं के दोष ढूंढना यद्यपि सबसे कठिन कार्य है, किन्तु सब से अधिक साहसिक व सराहनीय कार्य यही है।

   
61.

जब किसी व्यक्ति द्वारा अपने लक्ष्य को इतनी गहराई से चाहा जाता है कि, वह उसके लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने के लिए तैयार होता है, तो फिर उसका जीतना सुनिश्चित है। सीधी सी बात है, हम जो भी लक्ष्य निर्धारित करें, फिर उसको हासिल करने हेतु अपनी सम्पूर्ण शक्ति एवं सामर्थ्य के साथ पूरी ईमानदारी से प्रयत्न करें। कोई भी ऐसा बहाना या कारण नही बनने देना है, जो हमको उद्देश्य से भटका सके। कोई भी ऐसा कार्य, राह, उपाय व प्रयास नहीं छोड़ना है, जो उस लक्ष्य को प्राप्त करने में हमारी मदद करे। हमें अपना शत-प्रतिशत उस लक्ष्य को हासिल करने में लगा देना है। सिर्फ सफलता के विषय में सोचना है, और फिर सफलता के बाद होने वाले उल्लास के बारे में सोचना है। असफलता की किंचित मात्र भी कल्पना और परवाह नही करनी है, हमारा लक्ष्य स्वयं ही सुलभ होगा।

   
62.

एक सकारात्मक चरित्र का व्यक्ति जब कोई ऐसा कार्य करता है, जो सर्व-समाज के हित में हो, तो वह उसका श्रेय लेने की ना तो आकांक्षा रखता है, और ना ही इसके लिए कोई प्रयत्न ही करता है। इसके उलट वह अपना सर्वस्व समाज व राष्ट्र के हित के लिए कार्य करने का प्रयास करते हुए दांव पर लगा देता है। जो लोग सिर्फ श्रेय लेने की चेष्टा में रहते हैं, वह प्रगति की राह में अवरोध ही पैदा करते हैं, क्योंकि उनकी उपलब्धियां सिर्फ श्रेय लेने तक ही सीमित रहती हैं। उसके आगे के लक्ष्य को देखने हेतु ना तो उनमें बुद्धि एवं विवेक होता है, और ना ही दृष्टिकोण व संस्कार। अब यह स्वयं हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम किस वर्ग में रहना चाहते हैं।

   
63.

हमारे जीवन में घटित होने वाली कोई भी घटना अपने साथ कोई ना कोई कारण या उद्देश्य लेकर ही आती है, और हमारे जीवन मे अपना प्रभाव छोड़कर जाती है। हमको हर घटना से कुछ ना कुछ सीखना है तथा तद्नुसार अपने भविष्य की सभी योजनाएं को भी बनाना होंगा। घटित होने वाली हर घटना से हमे सबक लेना होगा एवं भविष्य के लिए तैयारी भी करनी होगी, ताकि हम फिर से ऐसा कोई नकारात्मक कार्य ना करे जिससे हमको पुनः कोई कष्ट या हानि हो। इसके विपरीत सुखद घटनाये सुख, समृद्धि तथा प्रसन्नता प्रदान करने वाली होती हैं व उनको उत्पन्न करने वाले मूल कारण जीवन में पुनरावृत्ति के योग्य होते हैं। अतः होने वाली हर घटना का समान रूप से आदर करें, एवं उनको समान तथा सकारात्मक भाव से लें, चाहे वो कोई कष्ट या हानि देने वाली हो, अथवा सम्मान व खुशी प्रदान करने वाली।

   
64.

ज़िंदगी में कभी किसी को ऐसा मौका नहीं देना चाहिये कि वो हमारे चेहरे की मुस्कुराहट छीन ले। हमें यह याद रखना चाहिए कि यह दुनिया हमारे लिए है, हम दुनिया के लिए नहीं। स्वयं के कार्यों एवं भावनाओं पर हमारा स्वयं का ही नियंत्रण होना चाहिए। हम अपने हृदय की दुर्बलताओं तथा शक्तियों को स्वयं पहचाने व उन पर हमारा अपना नियंत्रण हो। किसी अन्य के हाथ में अपने मन की चाबी (नियंत्रण) क्यों दे। अपने जीवन मे आने वाली भिन्न परिस्थितियों का सामना हमने ही करना है। यह किस तरह करना है, इसका निर्णय हमारा स्वयं का होना चाहिए। कोई दूसरा इनको क्यों व कैसे नियंत्रित कर सकता है। अपनी संवेदनाओं और कर्म पर हमारा अपना नियंत्रण होना चाहिए ताकि हम आत्मनिर्भर रहें। किसी दूसरे के हाथ की कठपुतली क्यों बने।

   
65. प्यार के अभाव में ही लोग भटकते हैं, और भटके हुए लोग प्यार से ही सीधे रास्ते पर लाए जा सकते हैं। प्यार एक ऐसी भावना है जो आत्माओं को जोड़ती है, रूहों को मिलाती है, बिछड़े हुए एवं बिखरे परिवारों को आपस मे सम्मान के साथ वापिस लाती है, समाज मे सकारात्मकता एवं पूर्ण एकता का संचार भी करती है। जीवन मे जिस तरह के प्रभावी व चमत्कारिक परिवर्तन प्रेम व सद्भावना से लाये जा सकते हैं, वह किसी अन्य रास्ते से संभव ही नही हैं। अतः जीवन से घृणा एवं नफरत जैसी नकारात्मक भावनाओं को दूर रखते हुए प्रेम एवं सद्भावना जैसी पवित्र तथा सकारात्मक भावनाओं को ही अंगीकार करें।
   
66. लफ़्ज़ इंसान के गुलाम होते हैं, मगर बोलने से पहले। बोलने के बाद इंसान अपने लफ़्ज़ों का स्वयं ही गुलाम बन जाता है। हमारे वह शब्द जो अब तक कहे नही गए, वो तरकश में रक्खे हुए तीर के समान हैं। वो बस तभी तक हमारे हैं, जब तक हमारे पास हैं और हमारे नियंत्रण में हैं। हाथ से एक बार निकलते ही ये फिर हमारे नही रहते। अतः इनको अपने नियंत्रण से मुक्त करने से पूर्व उनको अच्छे से परख लेना चाहिए व उनसे होने वाले प्रभाव का पूर्वानुमान भी लगा लेना चाहिए। यह हमको उस स्थिति से भी बचाता है, जिसमें दूसरे लोग हमारे ही लफ्जों का भावार्थ तथा प्रभाव बता कर हमको प्रताड़ित कर सकते हैं।
   
67.

मनुष्य का पतन कार्य की अधिकता से नहीं, वरन कार्य की अनियमतता से होता है। वास्तविकता यही है कि इस संसार में अपने-अपने जीवन में सभी लोग अति-व्यस्त हैं और अपने अस्तित्व को बचाने हेतु निरंतर संघर्ष कर रहे हैं। कोई जीने के लिए अपनी मृत्य शैय्या पर पड़ा हुआ एक- एक श्वांस के लिए संघर्ष कर रहा है, तो कोई अपने जीवन-स्तर को बेहतर बनाने के लिए अपनी लड़ाई लड़ रहा है। सच्चाई यही है कि सबके पास एक समान अति सीमित समय है व सबके हर एक दिन में सिर्फ 24 घंटे ही होते हैं। किन्तु कुछ लोग इसी समय मे अपने संघर्ष में सफल हो कर अपनी लगभग सभी लड़ाइयाँ जीत लेते हैं, और एक बेहतर संगठित तरीके से अपना, अपने परिवार व समाज का निरंतर उत्थान करते हैं। इसके विपरीत उन्ही परिस्थितियों में कुछ लोग सिर्फ पराजित होकर निरंतर पतन की ओर बढ़ते जाते हैं। यह अन्तर कार्यशैली व समय के प्रबन्धन में विशिष्ट भिन्नता होने के कारण ही होता है। आप अपनी कार्यशैली में वांछित बदलाव करके देखिए, सफलता स्वयं ही आपके साथ चल देगी।

   
68.

भला उस आदमी को क्या लाभ, यदि वह पूरी दुनिया पा जाए और अपनी आत्मा खोने की पीड़ा सहे। भौतिकतावादी मानसिकता तथा विचारधारा सिर्फ भौतिक सुख हेतु किसी भी स्तर तक गिरने हेतु प्रेरित करती है। आज की अर्थवादी तथा भौतिक आनंद को प्राथमिकता देने वाली पीढ़ी संसाधनो को जुटाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है, चाहे वह अपनी मानसिक शान्ति, आत्म-बल एवं पारिवारिक मूल्यों को खोने की कीमत पर ही क्यों न हो। किन्तु यह सदैव याद रखना चाहिए कि अपनी अंतरात्मा का सौदा करके भौतिक सुख की प्राप्ति स्वयं अपने ही अंतर्मन से व्यभिचार है, जिसकी असहनीय एवं चिरस्थाई पीड़ा का कटु अनुभव तब होता है, जब हम स्वयं को आत्मबल विहीन पाते हैं, और आर्थिक पूंजी व भौतिक सुख एकत्र करने की होड़ में अपने मन की शांति और अपनी आत्मा की पवित्रता जैसी अमूल्य संपत्ति लुटा बैठते हैं।

   
69.

यदि जीवन में लोकप्रिय होना हो, सफल होना हो, प्रगति के पथ पर अग्रसर होना हो तो, सबसे ज्यादा 'आप' शब्द का.., उसके बाद 'हम' शब्द का...., और सबसे कम 'मैं' शब्द का इस्तेमाल करना चाहिए। दूसरों को सम्मान देने से स्वयं को भी सम्मान प्राप्त होता है, एक दूसरे के प्रति विश्वास एवं सौहार्द बढ़ता है। इसी प्रकार, जब हम सब को साथ लेकर आगे बढ़ते हैं तो बड़े कठिन व दुष्कर कार्य भी बहुत आसानी से सम्पन्न हो जाते है। संगठित होने से शाक्ति का संचार होता है। “मैं" शब्द बहुधा अभिमान व स्वयं ही श्रेय लेने का स्वार्थी एवं आत्मकेंद्रित प्रयास है। प्रयास करें कि इसका उपयोग ना ही करना पड़े। यदि कभी करें भी, तो उसी समय, जब आपकी परिस्थितियां इस के लिए आपको विवश करें एवं अन्य कोई विकल्प उपलब्ध ही ना हो।

   
70.

खुशी अपने आप नहीं मिलती। यह हमारे अपने कर्मों से ही प्राप्त होती है। सत्य तो यही है कि हमें दुख भी कभी अपने आप नही मिलता। वह भी हमारे अपने कर्मों का ही प्रतिबिम्ब है। जीवन स्वयं हमारे कर्मों की एक सशक्त प्रतिध्वनि है। हमारे हरेक कर्म की एक तत्काल एवं निश्चित प्रतिक्रिया होती है, जो हमारे ऊपर अपना पूर्ण प्रभाव डालती है। यदि हम सकारात्मक कर्म करेंगे तो निश्चित रूप से हमारे मन व मस्तिष्क पर उसका सकारात्मक व प्रसन्न कर देने वाला प्रभाव होगा। सर्वत्र सुख, प्रसन्नता तथा खुशी की प्रतिध्वनि होगी। इसके विपरीत नकारात्मक दृष्टिकोण से कर्म करने पर उसका विपरीत प्रभाव स्वयं हम पर पड़ेगा और फिर हमारे मन एवं मस्तिष्क में दुख, कष्ट और पीड़ा के अलावा कुछ नही रहेगा। आपका आज का दिन अत्यन्त शुभ, सुखद एवं विघ्नविनाशक हो। ये ज़िन्दगी तमन्नाओं का गुलदस्ता ही तो है, कुछ महकती है, कुछ मुरझाती है।

   
71.

विश्वास की रक्षा अपने प्राणो से भी अधिक करनी चाहिए। हमारे प्रति सबके मन में गहन विश्वास ही हमारी प्राणवायु है, और यह एकाएक उत्पन्न नही हो जाता। इसके लिए निरंतर, सार्थक एवं स्वार्थरहित प्रयास करने पड़ते हैं। सकारात्मक दृष्टिकोण एवं विचार के साथ निरन्तर सत्य एवं नैतिकता के कठिन परन्तु संभावित मार्ग पर चलना होता है। जब पूर्ण समाज हमारे प्रति पूरी तरह आश्वस्त हो जाता है, तभी हमारी विश्वसनीयता सहज स्वीकार्य होती है। इतने परिश्रम व त्याग के द्वारा अर्जित की गई विश्वसनीयता की पूंजी सुरक्षित संभाल कर रखना हमारी अपनी जिम्मेदारी है, और इसकी रक्षा हमें अपने प्राणों से भी अधिक करनी होगी। यदि हमने एक बार भी अपनी विश्वसनीयता को खो दिया, तो फिर इस को पुनः प्राप्त करना असंभव नही, तो आसान भी नही होगा। सृष्टि कितनी भी परिवर्तित हो जाए किन्तु फिर भी हम पूर्ण सुखी नहीं हो सकते...! परंतु दृष्टि थोड़ी सी भी परिवर्तित हो जाए तो हम सुखी हो सकते हैं। “जैसी दृष्टी-वैसी सृष्टि"

   
72.

अगर दिल ही साफ़ न हो तो, चमकता चेहरा किसी भी काम का नहीं। ऐसे चेहरे की तुलना एक ऐसे स्वर्ण-पात्र से की जा सकती है, जिसमे सिर्फ घातक विष भरा हो। चेहरे व शरीर का आकर्षण क्षणिक होता है, इस के विपरीत मन के बंधन शरीर व चेहरे की सुंदरता पर अथवा शरीर के रहने या ना रहने पर निर्भर नही करते हैं। सत्य यही है कि सिर्फ सौंदर्य से आकर्षित होकर उत्पन्न हुए रिश्ते सुंदरता के नष्ट होते ही तत्काल नष्ट हो जाते हैं। अतः अपने मन तथा मस्तिष्क को आकर्षक, सरल, सहज, सुंदर एवं सर्वस्वीकार्य बनायें। अंततः केवल आंतरिक सौंदर्य ही पूर्ण स्थायित्व के साथ आकर्षित कर सकता है।

   
73.

अतीत पे बिल्कुल भी ध्यान मत दो। क्योंकि वह तो बीत चुका है। इस संसार की सारी सम्पदा मूल्य रूप में चुकाने के बाद भी अब अतीत को पुनः वापिस नही लाया जा सकता। अतीत के दिये सबक से सीखा अवश्य जा सकता है, जिससे अतीत में की गई गलतियों की पुनरावृत्ति ना हो सके। भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के विषय में भी हमें नही सोचना है। एक तो वो अभी आया ही नही है, फिर उसका हमारे जीवन में आना भी सुनिश्चित नही है। क्या पता अगला पल हमारे इस जीवनकाल मे आने वाला भी है कि नही, और वह अपने साथ अनिश्चितता से परिपूर्ण कौन सा घटना-चक्र लेकरआने वाला है।

अतः हमको अपने मन को सिर्फ वर्तमान क्षण पर केन्द्रित करना है। ये जो अभी का पल है, जिसे हम जी रहे हैं, वही हमारा अपना है। यही प्रत्येक पल हमारे जीवन में आना पूर्ण रूप से निश्चित था एवं आ गया है। इस एक पल को भरपूर जी लें, और जो कार्य सोच रक्खे हैं, उन सभी कार्यों को, जितना भी कर सकें, बस अभी इसी पल में कर लें। कटु सत्य यही है कि यह जीवन सिर्फ उतना ही है, जितना कि यह पल है, जिसे हम अभी जी रहे हैं। उसके आगे निश्चित कुछ भी नही है।

   
74.

अपनी ख़राब आदतों पर जीत हासिल करने के समान जीवन में कोई और आनन्द नहीं होता है। खराब आदतें वही होती हैं जो हमें निरंतर सामाजिक, आर्थिक एवं शारीरिक हानि पहुंचाती हैं। यह आदतें किसी भी वस्तु या व्यसन की हो सकती हैं। जब किसी भी चीज की शरीर या दिमाग को आदत पड़ जाये, तो फिर उससे छुटकारा पाना अति ही दुष्कर कार्य होता है। अतः ऐसी स्थिति में यदि कोई अपनी खराब और हानिकारक आदतों से मुक्ति प्राप्त करने का प्रयत्न भी करता है, तो वह निश्चित रूप से प्रशंसनीय है, क्योंकि वह अब वर्तमान से एक बेहतर जीवन की ओर कदम बड़ा रहा है। हमें उस का उत्साहवर्धन करना चाहिए।

   
75.

अनुराग एवं स्नेह के अभाव में ही लोग भटकते हैं, और भटके हुए लोग प्यार से ही सीधे रास्ते पर लाए जा सकते हैं। अनुराग एवं स्नेह एक ऐसी भावना है जो आत्माओं को जोड़ती है, रूहों को मिलाती है, बिछड़े हुए एवं बिखरे परिवारों को आपस मे सम्मान के साथ वापिस लाती है, समाज मे सकारात्मकता एवं पूर्ण एकता का संचार भी करती है। जीवन मे जिस तरह के प्रभावी व चमत्कारिक परिवर्तन प्रेम व सद्भावना से लाये जा सकते हैं, वह किसी अन्य रास्ते से संभव ही नही हैं। अतः जीवन से घृणा एवं नफरत जैसी नकारात्मक भावनाओं को दूर रखते हुए प्रेम एवं सद्भावना जैसी पवित्र तथा सकारात्मक भावनाओं को ही अंगीकार करें। रिश्तों में विश्वास मौजूद है तो मौन भी समझ आ जायेगा, और यदि विश्वास नहीं है तो शब्दों से भी गलतफहमी हो जायेगी।

   
76.

सफलता का मूल मन्त्र क्या होता है, शायद हमे ये नहीं पता हो, पर इतना अवश्य जान लेना चाहिए, कि सभी को खुश करने का प्रयास करना ही हमारी असफलताओं का मूल मन्त्र है। यह सर्वमान्य सत्य है कि हम कभी भी अपने लाख प्रयासों, चेष्टाओं व सावधानियों के बाद भी एक साथ सभी को प्रसन्न नही कर सकते। यदि हमारा एक कार्य किसी एक व्यक्ति या समूह विशेष का हित साध कर उसको प्रसन्न करता है, या लाभ पहुंचाता है, वहीं उससे किसी अन्य को कष्ट व हानि की सम्भावना भी हो सकती है। अतः हमे प्रशंसा के साथ ही आलोचना के लिए भी तैयार रहना चाहिए। यदि हम अपनी आलोचना के डर से सब को एक साथ प्रसन्न करने हेतु नियोजित कार्य करना चाहेंगे, तो संभवतः हम कोई ठोस निर्णय ले ही नही पाएंगे, और अनिर्णय व अकर्मण्यता की स्थिति के शिकार हो जायेंगे, जो हमारे प्रयासों को सिर्फ विफलता के मार्ग की तरफ ले जायेगा। स्वयं का मन क्रोध, लोभ मोह माया से भर लिया तो कलयुग हो गया, स्वयं का मन करुणा दया दान पुण्य से भर लिया तो सतयुग हो गया। हम बदलेंगे युग बदलेगा।

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